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गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

पछताते रह जायेंगे .



... चलिए एक कहानी सुनाती हूँ ..एकदम सच्ची कहानी..एक बिटिया और उसके पापा की कहानी ..मेरी दादी कहा करती  थी कि हमारे खानदान की  परंपरा है 'पान खाना'. ख़ुशी का मौका हो या गम का, 'पान खाना' ही पड़ता .परीक्षा देने जाना हो, यात्रा करनी हो, शुभ काम होनेवाला हो या  हो चूका हो, लगभग  हर मौके पर 'पान' हाज़िर होता .बाबा और दादी तो बड़े शौक से पान खाते थे. ये उनकी दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा था. दादी बाकायदा  पान मंगवाती.. साफ़ करती ... अपने साफ़-सफ़ेद बिस्तर (जिनपर हमारा चढ़ना मना था) पर सूखाती ..काटती  - छांटती ....कत्था पकाती..पान लगाती .. खाती और खिलाती..बचपन में हमें भी पान खूब पसंद आया करता. असल में इसे खाने के बाद जीभ एकदम लाल हो जाती. हमारे लिए ये जादू सरीखा था .  बहुत मज़ा आता. बात इन खुशिओं तक  सीमित  रहती तो अच्छा था पर  'अति सर्वत्र वर्ज्यते' यू ही नहीं कहा गया.  अत्यधिक जर्दा के घुसपैठ ने 'पान खाने' जैसी परंपरा को भयावह रूप दे दिया और हमने अपने पापा को खो दिया .. 
जैसा कहा मैंने 'पान खाना' हमारे खानदान कि अभिन्न परंपरा थी. पापा भी पान खाया करते . हाँ, उनके पान में जर्दा (तम्बाकू) की मात्रा बहुत ज्यादा होती थी.मम्मी मना करती पर वो नहीं मानते. मम्मी ने हम बच्चो से भी कहा कि पापा को जर्दा मत खाने दो. मम्मी की ये बात हमारे  लिए खेल भी बन गयी .  हम  जर्दा (तम्बाकू) का डिब्बा  छिपा दिया करते थे ..पापा  मांगते...हम इतराते, खूब मनुहार करवाते, अंततः  दे देते ..पापा को आदेश देते जर्दा (तम्बाकू) कम खाना है ..पापा भी  दिखाने  के लिए मान जाते, कहते आज खाने दो, कल से नहीं खायेंगे...हम भी खुश और पापा भी खुश . .देखते ही देखते समय निकलता गया.पापा का पान और जर्दा (तम्बाकू) खाना नहीं छूटा.

 हम बड़े हो गए...व्यस्तताएं बढ़ गयी...पापा को बार- बार टोकना बंद हो गया..पर कभी-कभार जरुर शोर मचाते ..मम्मी की तबीयत ख़राब रहने लगी.उनको लेकर  बहुत परेशां रहते..बार-बार खून चढ़ाना, जगह-जगह दिखाना...पापा पर ध्यान देना थोडा कम हो गया था...इसी बीच पापा के भी मूह में दर्द रहने लगा...आशंका हुई पर बेटी का मन, गलत बातो को क्यों कर मान जाता . अब  पापा ने पान खाना छोड़ दिया, पर तबतक बहुत देर हो चुकी थी. एक दिन उन्हें जबरदस्ती  डॉक्टर के पास ले जाया गया. उसने देखते ही कह  दिया -इन्हें ओरल कैंसर है. पटना में बायोप्सी  करा ले. बायोप्सी में कैंसर ही निकला. हालाँकि मन ये मानने को तैयार ही नहीं था. अब भी लग  रहा था कि रिपोर्ट झूठी है .  यकीं था , पापा ठीक हो जायेंगे.  असल में उन्हें कभी बड़ी बीमारी से जूझते नहीं देखा था... और हमारे लिए तो वो 'सुपरमैन' थे , उन्हें क्या हो सकता था .

खैर , महानगरो की दौड़ शुरू हुई . कई अस्पतालों के चक्कर काटे गए. पता चला कि फीड-कैनाल में भी  कैंसर है, फेफड़ा भी काम नहीं कर रहा. डॉक्टर ने बताया कि 'ओपरेशन' और 'कीमो' नहीं हो सकता.' रेडियेशन'  ही एकमात्र उपाय है . सेकाई शुरू हुई, पापा कमज़ोर होने लगे. खाना छूट गया.' लिक्विड  डायट' पर रहने लगे. रेडियेशन पूरा होने के बाद गले का कैंसर ठीक हो गया पर 'ओरल'  ने भयावह  रूप ले लिया. डॉक्टरों  ने भी हाथ खड़े कर लिए. बीमारी बढ़ने लगी.  पहले होठ गलना शुरू हुआ . गाल में गिल्टियाँ  निकलने  लगीं और वो भी गलने लगा. धीरे-धीरे पूरा बाया गाल और दोनों होठ गल गए. घाव नाक तक पंहुचा..साँस लेने में परेशानी होने लगी. खाना पूरी तरह छुट चूका था. शरीर एकदम कमज़ोर हो गया. दावा-दारू काम न आया. ईश्वर ने हमारी 'बिनती' पर  ध्यान नहीं दिया. मित्रो-रिश्तेदारों की शुभकामनाओं की एक न चली. एक दिन  पापा हमें छोड़ कर चले गए. हम अवाक् से थे. सही है कि सबके माता-पिता जाते है पर हम अभी इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं थे. वैसे भी 'अडसठ साल' की  उम्र मौत के लिए बहुत ज्यादा नहीं होती, खासतौर पर तब, जब कभी- भी कोई बीमारी न रही हो. पर मौत आयी ..जल्द आयी..समय से पहले आयी, क्यूंकि जर्दा (तम्बाकू)  के सेवन ने उनकी उम्र को दस साल कम कर दिया था. हम रोते रहे, बिलखते रहे, छटपटाते रहे पर क्या हासिल ...पिता का साया उठ जाना बहुत बड़ी बात होती है..हम अनाथ हो गए ..बेसहारा से..

एक साल के अन्दर एक बिटिया के प्यारे से पापा उसे छोड़कर हमेशा के लिए चले गए. पापा के जाने के बाद हर पल याद आया कि कैसे पापा से जर्दा छोड़ देने का  आग्रह करते और पापा हमें फुसला देते ..काश कि पापा ने उसी वक़्त हमारी बाते मान ली होती ... काश कि अपनी बीमारी को बढ़ने न दिया होता.. काश कि... पर 'काश' कहने और सोचने मात्र से कुछ नहीं संभव था . जो होना था वह हो गया. ..छोडिये, अब  कुछ आंकड़े देखिये --- टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल के अनुसार हर साल कैंसर के नए मरीजों की संख्या लगभग सात लाख होती है जिसमे तम्बाकू से होनेवाले कैंसर रोगियों की संख्या तीन लाख है और इससे हुए कैंसर से मरनेवाले मरीजो की संख्या प्रति वर्ष दो हज़ार है ...बी. बी. सी. के अनुसार भारत में हर दस कैंसर मरीजों में से चार ओरल कैंसर के है..

पापा ने जबतक  'जर्दा' छोड़ा,  समय हाथ से निकल चूका था . पर बाकि लोग ऐसा क्यूँ कर रहे है? क्यूँ अपनी मौत खरीदते और खाते है? कल खबर देखा कि यू. पी. सरकार ने भी गुटखा  (तम्बाकू) प्रतिबंधित कर दिया ...बिहार और देलही में ये पहले से lagu है. इसके अनुसार गुटखा  (तम्बाकू) बनाने, खरीदने  और बेचने पर प्रतिबन्ध है..किन्तु सच तो यह है  गुटखा (तम्बाकू) खुले आम धड़ल्ले से बेचा-ख़रीदा जाता है...कम से कम अपने राज्य बिहार में तो यही देख रही हूँ...लोग आराम से  खरीदते  है...कोई रोक-टोक नहीं..पाबन्दी नहीं..सरकारे सिर्फ नियम बनाकर कर्त्तव्य पूरा कर देती है.. इसे लागू करने कि उसकी कोई मंशा नहीं होती. तभी तो कही कोई सख्ती नहीं बरती जाती. पुलिस और प्रशाशन के लोग स्वयं इसका सेवन करते है. भाई  लोग,  तम्बाकू का हर रूप हानिकारक है. इसका सेवन करनेवाले अपनी 'मृत्यु' को आमंत्रित करते है.  क्या आप  अपने अपनों से प्यार नहीं करते? फिर  इसकी लत जान से ज्यादा प्यारी कैसे बन जाती है जो  छूटती ही नहीं!  या फिर इच्छाशक्ति का घोर अभाव है, मन से बेहद कमज़ोर, लिजलिजे से हैं . यदि नहीं तो छोड़ दीजिये इस 'आदत' को .  मित्रों  आप तो समझदार है . चेत जाइये.  अरे,   जिम्मेदार नागरिक बने . तम्बाकू का किसी भी रूप में सेवन छोड़े . अपने रिश्तेदारों और मित्रो को भी रोके. कही बिकता देखे तो शिकायत करे . अन्यथा पछताते रह जायेंगे ....

---------------स्वयम्बरा 
यहाँ भी पढ़े http://www.swayambara.blogspot.in/2012/10/blog-post.html



1 टिप्पणी:

  1. बहुत अच्‍छा आलेख है....आपने अपनी जिंदगी में जो दर्द झेला...काश इस दर्द को दूसरे भी समझ जाए...सुधर जाएं..

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